18% कंपनियां ही ऑनलाइन डिग्री को उतना अच्छा मानती हैं जितना कि क्लासरूम वाली पढ़ाई..इसलिए नहीं मिल रही नौकरियां
कोरोना के बाद पढ़ाई का तरीका बहुत बदल गया। बहुत सारे कॉलेज और यूनिवर्सिटी ने ऑनलाइन पढ़ाई शुरू कर दी। लाखों छात्रों ने घर बैठे डिग्रियां लीं। भारत सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने भी इसे मंजूरी दे दी। लेकिन जब ये छात्र नौकरी के लिए गए, तो उन्हें देखा गया जैसे उनकी डिग्री ‘सच’ नहीं है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ 18% कंपनियां ऑनलाइन डिग्री को उतना ही अच्छा मानती हैं जितना कि आम (क्लासरूम वाली) डिग्री को। जबकि 2020 में जहां ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले 14 लाख थे, वो 2023 में बढ़कर 41 लाख हो गए। इसका मतलब ये है कि पढ़ाई और नौकरी के बीच एक बड़ा गैप बन गया है। सरकार की नई शिक्षा नीति (NEP 2020) कहती है कि भविष्य में ऑनलाइन और हाइब्रिड पढ़ाई (ऑनलाइन+ऑफलाइन) आम बात हो जाएगी। लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि अभी भी नौकरी देने वालों को इस पर भरोसा नहीं है।
2024 में एक नौकरी की वेबसाइट Shine.com के सर्वे में सामने आया कि 72% नौकरियों में साफ-साफ लिखा होता है कि सिर्फ “नियमित डिग्री” (यानी ऑफलाइन क्लास वाली) चाहिए। और जो छात्र ऑनलाइन डिग्री लेकर नौकरी पा भी लेते हैं, उन्हें 15-20% कम सैलरी मिलती है, ऐसा बताया गया है। कुछ सेक्टर जैसे IT और BPO कंपनियां थोड़ी खुले दिमाग की हैं—वो 34% ऑनलाइन पढ़ाई करने वालों को नौकरी देती हैं। लेकिन बैंक और सरकारी नौकरियों में तो हाल और भी बुरा है—वहां ये आंकड़ा 5% से भी कम है। कंपनियों को डर है कि ऑनलाइन पढ़ाई में पढ़ाई का स्तर और इम्तिहान की ईमानदारी सही नहीं रहती। एक यूनिवर्सिटी के सर्वे में पाया गया कि 41% ऑनलाइन छात्र मानते हैं कि उन्होंने परीक्षा में चीटिंग की थी। और बहुत कम कॉलेज ही AI टूल्स से ऑनलाइन इम्तिहान की निगरानी करते हैं। इससे कंपनियां सोचती हैं कि ये डिग्रियां उतनी भरोसेमंद नहीं हैं।
सिर्फ स्किल्स ही नहीं, बल्कि बातचीत करने की समझ, टीम में काम करने की आदत और सोचने की ताकत भी कंपनियां देखती हैं—ये सब आमतौर पर क्लासरूम में अच्छे से सिखाया जाता है। ऑनलाइन क्लासेस में ये सब थोड़ी मुश्किल से सिखाया जा सकता है। सर्वे बताते हैं कि ज़्यादातर माता-पिता भी ऑनलाइन डिग्री को गंभीरता से नहीं लेते। 68% पैरेंट्स मानते हैं कि ऑफलाइन पढ़ाई ही बेहतर है। अब हालात ये हैं कि 45% यूनिवर्सिटी ऑनलाइन कोर्स तो दे रही हैं, लेकिन देश की टॉप कंपनियों में से सिर्फ 12% ने अपनी भर्ती की नीतियों को बदला है। गांवों के कॉलेजों में तो हालत और भी खराब है—AICTE की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ 30% ग्रामीण कॉलेजों के पास सही डिजिटल साधन हैं।
शिक्षकों में भी ऑनलाइन पढ़ाने को लेकर हिचकिचाहट है। शिक्षा मंत्रालय के सर्वे के मुताबिक, आधे से ज़्यादा प्रोफेसर कहते हैं कि ऑनलाइन पढ़ाना मुश्किल है और इसके लिए उन्हें न तो ट्रेनिंग दी गई है और न ही कोई सहारा।
फिर भी कुछ पॉज़िटिव उदाहरण भी हैं। IIT मद्रास का ऑनलाइन BS प्रोग्राम बहुत सफल रहा है—यहां 92% स्टूडेंट्स को अच्छी कंपनियों में नौकरी मिली है, क्योंकि उन्होंने इंडस्ट्री के साथ अच्छे से मिलकर कोर्स बनाया है। इसी तरह, एमिटी यूनिवर्सिटी ब्लॉकचेन तकनीक से डिग्री का सर्टिफिकेट देती है ताकि कोई उसे नकली न बना सके।
इस पूरी समस्या का हल सिर्फ नए कानून बनाने से नहीं होगा। ज़रूरत है सोच बदलने की। नियोक्ताओं (कंपनियों), शिक्षकों और सरकार को मिलकर ये तय करना होगा कि डिग्री की ‘असली कीमत’ क्या है—उसका नाम, या उसमें सीखा गया हुनर?
अगर कोर्स कंपनियों की ज़रूरत के हिसाब से बनाए जाएं, परीक्षा और डिग्री देने में पारदर्शिता हो और तकनीक का सही इस्तेमाल हो, तो भरोसा भी बनेगा।
UGC ने इस दिशा में कुछ अच्छे कदम उठाए हैं, जैसे निगरानी कड़ी करना और मूल्यांकन सिस्टम को बेहतर बनाना। लेकिन अगर कंपनियाँ भी अपनी सोच नहीं बदलेंगी, तो डिजिटल शिक्षा की पूरी ताकत सामने नहीं आ पाएगी।
अब वक्त आ गया है कि हम ये सवाल पूछें—”कहां पढ़ा?” से ज़्यादा जरूरी है “क्या सीखा और क्या कर सकते हो?”
यह आलेख द हिंदू अख़बार से लिया गया है। इसके लेखक द्वारका दास गोवर्धन दास वैष्णव कॉलेज (स्वायत्त), चेन्नई में विज़ुअल कम्युनिकेशन विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हैं। इसे हूबहू न लेकर भावानुवाद किया गया है।